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Wednesday, 17 July 2013

माँ तुम यूँ न आकर जाया करो ........

जीवन के वो पल जब तुम साथ थी याद करते करते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला और निंदिया ने घेर लिया ... उस नींद के बाद तुम आ गयी सपनो के रथ पर सवार होकर और सब कितना अच्छा लग रहा था ... तुम खाना बना रही थी वहीँ हम सब आसपास बैठकर खा रहे थे ... हंसी मजाक हो रहा था फिर अचानक एक काला सा सींगो वाला शख्श आता है और तुमको कहता है चलो इतनी ही इज़ाज़त दी थी अगर लेट करोगी तो आगे से फिर न आने दूंगा .... जी चाहता था की उस दुष्ट को धक्का देकर गेट बंद कर दूँ लेकिन तभी तुम कहने लगी ठीक है मैं इनसे मिल ली इनको खाना खिला दिया अब मैं चल रही हूँ तुम्हारे साथ .... और तुम चल पड़ी उसके साथ भरी हुयी आँखें लेकर और हम तुमको रोक भी न पाए .... क्यूँ जाना जरुरी था ये कुछ कुछ अहसास था की फिर से लौटकर आने को जा रही थी तुम .... हम चाहते थे की तुम सदा के लिए रुक जाती पर ये भी तो संभव न था ... अचानक आँख खुली और देखा आँखों से सच में आंसू बह रहे थे और एक खवाब टूट गया था ... उस वक्त जो बेचैनी थी उसको ब्यान कर पाना बहुत मुश्किल है .... माँ तुम यूँ न आकर जाया करो ........

प्रवीन मालिक .........

4 comments:

  1. शायद वो कहीं नहीं जाती ... होती तो आस-पास ही है ...
    दिल के जज्बातों को संभालना कई बात आसां नहीं होता ...

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती ,आभार।

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  3. वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. "
    एक अत्यंत प्रभावशाली रचना,
    सम्मानित मित्र,
    आपको असीम शुभ-कामनायें!"

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पधारने के लिए धन्यवाद