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Monday 29 July 2013

ये मासूम चंचल बेटियां .......

मानव सभ्यता की नींव हैं बेटियां 
भगवान् की अद्भुत रचना हैं बेटियाँ 
खुशनसीब के घर जन्म लेती हैं बेटियाँ 
जिंदगी के क़र्ज़ से मुक्त करती  हैं बेटियाँ 
एक पिता का गुरुर होती हैं बेटियाँ 
एक माँ का भी प्रतिरूप हैं बेटियाँ 
प्यार और ममता का नाम हैं बेटियाँ 
किसी के भी घर की शान हैं बेटियाँ 
समाज का एक अहम् अंग हैं बेटियाँ 
त्याग और विश्वास का नाम हैं बेटियाँ 
हर रिश्ते का आधार हैं बेटियाँ 
घर को खुशियों से महका देती हैं बेटियाँ 
दुर्गा रूप अवतार भी कहलाती हैं बेटियां 
गंगा  सी पवित्र व उज्जवल होती हैं बेटियाँ 
लक्ष्मीबाई सी साहसी भी होती हैं बेटियाँ 
हर रूप में गुणों की खान होती हैं बेटियाँ 
दुःख में सहारा तो सुख में बढ़ावा देती हैं बेटियाँ 
पर हमारे समाज में आज नहीं सुरक्षित बेटियाँ 
भरे बाज़ारों में आज शर्मसार होती हैं बेटियाँ 
भेडियों का कभी भी शिकार होती हैं बेटियाँ 
दहेज़ प्रथा की भी शिकार होती हैं  बेटियाँ 
बेटा-बेटी में पक्षपात की भी शिकार होती हैं बेटियाँ 
रीती रिवाजों का भी शिकार होती हैं बेटियाँ 
जन्म से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं बेटियाँ 
बेटी है तो कल है सर्वज्ञ है  फिर भी शिकार हैं बेटियाँ 

@@@@@ प्रवीन मलिक @@@@@


7 comments:

  1. ये मासूम चंचल बेटियां ….सही कहा बेटियां नसीब से ही मिलती है ...

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  2. बिलकुल सही ,बेटिया तो घर का गोरव होती है,

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  3. बेटियां जरूरत हैं आजकी ... सभ्य समाज उनके कारण ही है ... जितना भी है ... भाव मय रचना ...

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  4. सादर धन्यवाद अरुण जी ...

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  5. हे इंशानियत के दुशमनों - SAVE - HUMINITY-
    -
    गर मायने का पता होता -गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (1) ) भ्रूण की व्यथा-- गूंजती किलकारियां हर आगन में-
    कोई कन्या भ्रूण दफ़न न होता-
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता
    -तेरी नानी माँ भी ये ही सोचती तो------------- तेरी माँ और तूँ कहाँ होता

    (२) न खिंची जाती सीमा रेखाएं-
    न कभी भी राष्ट्र-द्रोह होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (3) न कसी जात का पता होता –
    न होती मानवता शर्मशार-
    गर मानवता के मायने का पता होता

    (4) न सभ्यता लगाती आग संकृति को-
    गर खुद के झुलस जाने का पता होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (5) न कोई मानव शर्मशार होता
    ग़र उसे मानवता के मायने का पता होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (6) न आंच आती आस्मिता पर-
    न कोई दहेज़ का दानव होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (7) न फरक औरत और मर्द में में होता
    गर तुझे औरत का देवी होने का पता हो ेता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (8) न कुचली जाती कोई कलि फुल बनने से पहिले
    हर गुलशन गुल-ए-गुलज़ार होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता

    (9) न माँ की सिश्कियों की कहानी होती—
    न कातिलो का खोफ होता
    गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता
    गर मायने का पता होता -गर आदमी अबतलक आदमी बन गया होता
    -तेरी नानी माँ भी ये ही सोचती तो------------- तेरी माँ और तूँ कहाँ होता
    विजय वर्माअजनबी)(कॉपीराइट)

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