आइये आपका स्वागत है

Friday 26 September 2014

सुन ले माँ मेरी भी पुकार ....



हे माँ सुन ले मेरी भी पुकार
कर दे मेरे जीवन का तू उद्धार !!
दिल से मेरे नफरत मिटा दे
प्यार-प्रेम के बस फूल तू खिला दे !!
पापों से मुझको मुक्त कर दे
आचरण को मेरे तू शुद्ध कर दे !!
किसी के कुछ काम आ सकूँ
ऐसी मुझ में माँ तू शक्ति भर दे !!
हैं लाख बुराईयाँ मुझमें ऐ माँ
हाथ रख सर पे तू मुझे निर्मल कर दे !!
मिट जाये अज्ञान का ये तम घनेरा
जो अपने चरणों में तू मुझे शरण दे दे !!
जय माँ अम्बे हे माँ जगदम्बे जय भवानी
देकर आशीष मुझे तू धन्य कर मेरी जिंदगानी !!
……. प्रवीन मलिक……

Friday 12 September 2014

आखिर क्या है कविता ???

मुझे नहीं पता
आखिर क्या है कविता  !

शायद प्रकृति का
अवर्णनीय सौंदर्य है कविता  ! 

शायद किसी प्रेमिका के
अप्रतिम रूप का बखान है कविता ! 

शायद  निश्चल प्रेम की
विस्तृत परिभाषा है कविता  ! 

शायद दर्दे-दिल का
उमड़ता हुआ सैलाब है कविता ! 

या फिर शायद कवि की
कोरी कल्पनाओं का प्रतिबिम्ब है कविता ! 

जो भी हो इसकी परिभाषा
मेरे लिए तो दिल का सुकून है बस कविता !! 

(प्रवीन मलिक)

Wednesday 10 September 2014

पितृपक्ष श्रधा है या फिर ढोंग ..

परसों से श्राद्ध लगे हैं जिसका पता मुझे कल ही चला और आज सासु माँ का श्राद्ध था तो जितना बताया गया बड़ों द्वारा उतना श्रद्धापूर्ण तरीके से कर दिया ! मेरी सासु माँ भी श्राद्ध नहीं निकालती थी किसी का लेकिन मम्मी निकालती थी तो देखा था और शादी के बाद जेठानी जी भी अमावस्या के दिन निकालती थी पूछने पर पता चला कि ससुराल में नहीं निकालते हैं किसी का पता भी नहीं है तो बस अमावस्या को इसलिए निकाल देते कि उस दिन सब भूले-बिसरों का कनागत निकाला जाता है ! पिछली बार एक कनागत निकाला था ससुर जी के भाई का और आज सासु जी का निकाला है ! इस विषय में न कोई पूर्ण जानकारी है और शायद इसीलिए दिल इन सब चीजों को मानता भी नहीं ....
जो है जबतक जिंदा हैं तबतक ही है मरने के बाद किसने खाया किसने नहीं कुछ पता नहीं बस रिवाज है चली आ रही हैं और हम भी बस निभाते चले जा रहे हैं !
जीते जी जो शाँति न दे सकें मरने के बाद क्या ..... जीते जी लोग खबर नहीं लेते और मरने पर पंडित को ५६ भोग कराकर क्या और कैसी शाँति देते हैं  मुझे नहीं मालूम ! एक उम्र के बाद इँसान बोझ बन जाता है  आजकल के परिवेश में और कुछेक घरों में नहीं अक्सर ज्यादातर का यही हाल है क्यूँकि हम सिर्फ बड़ी बातें करने में विस्वास रखते ... करनी और कथनी में भेद रखते हैं ! सास-ससुर को मेहमान समझते हैं और मेहमान तो भई ..  बचपन में एक छोटू चाचा होते थो अक्सर एक बात कहा करते थे और हम खूब हँसा करते थे
पहले दिन का मेहमान
दूसरे दिन का साहेबान
तीसरे दिन का कद्रदान
और चौथे दिन का बेईमान ...
तो क्या अब वृद्ध जन भी उसी कैटेगरी में आते हैं ??? अपने ही घर में मेहमान हैं ??? अपने ही बच्चों जिनको बचपन में कंधे पर बिठाकर घुमाया करते थे उनके लिए बोझ हैं ??? जिनको पढ़ा-लिखाकर साहब बना दिया उनके मुँह से ये सुनने को मिलता है तुम्हें समझ नहीं ...... जो अपनी रातों की नींद इसीलिए कुर्बान कर देते थे कि बच्चों को किसी चीज की कमी न हो ..   माँ-बाप खुद जो कमी सहे हों वो कभी नहीं चाहते की उनके बच्चे उन कमियों और मजबूरियों के साथ समझौता करें उसके लिए वो अपनी जान, जवानी, चैन, आराम, भूख-प्यास , नींद खुशियाँ सब त्याग देते हैं पर कितने बच्चे ऐसा कर पाते हैं जब वही माँ-बाप अपनी वृद्धावस्था में एक गिलास पानी या दो वक्त की रोटी के मोहताज हो जाते हैं ?????
जिंदा रहते दो टूक को तरसे और मरने पर देसी घी का भोग ..... अरे जब इतना ही उनकी आत्मा की शाँति का ख्याल है तो ये सब जीते जी करो .... जिंदा थे तो जी का जंजाल बने थे तुम्हारे मरते ही पूज्यवान हो गये ????
बात सच है इसलिए थोड़ी कड़वी भी है पर क्या करें शहद में लपेटकर हमें कुछ कहना नहीं आता जो दिल में है वही जबान पर है किसी को कड़वा लगे तो लगे  . ..  जीते जी जो कष्ट दिया है वो पितृपक्ष में दान-दक्षिणा देकर उसकी भरपाई नहीं की जा सकती .....
कितने लोग वृद्धाश्रम में रोज बाट जोहते हैं कि कब उनका खून आकर कहे चलो माँ चलो पिता जी घर चलते हैं पर कौन कहेगा किसको खबर है सुध लेने की ऐसा होता तो वो उन्हें छोड़कर जाते ही क्यूँ वहाँ ..........
खैर पितृपक्ष के विषय में कुछ भी मेरी कड़वी जबान कह गई हो अनाप-शनाप तो नादान समझकर माफ कर देना पर जो कहा है वो सत्य ही है इससे आप सहमत होगें पता है हमें ...  क्यूँकि हर दूसरे तीसरे बुजुर्ग की यी कहानी है ....

Friday 29 August 2014

भूख ...

श्वेता जो की अमीर बाप की बेटी है जिसने घर में किसी चीज़ की कभी कोई कमी नहीं देखी ! उसका जन्मदिन था और उसने अपने सभी फ्रेंड्स को पार्टी के लिए घर पर बुलाया और घर की बावर्चिन को खाने का मेनू पकड़ाते हुए कहा की आज ये सब खाने में बनना चाहिए और खाना बहुत ही स्वादिष्ट होना चाहिए किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं होनी चाहिए मेरे  सब फ्रेंड्स आ रहे हैं तो कोई तमाशा नहीं होना चाहिए !
कमला (बावर्चिन का नाम ) श्वेता के स्वभाव से परिचित थी की श्वेता तो हर बात में नुक्स निकालती है उसको खुश करना टेढ़ी खीर है लेकिन अब जब उसने आर्डर दे ही दिया है तो कमला को तो सब तैयारी करनी ही थी ! कमला ने जी तोड़ मेहनत करके  खाना तैयार किया ! शाम हो चुकी थी कमला की धड़कने बढ़ रही थी पता नहीं मेमसाहब को खाना पसंद आयेगा भी या नहीं या फिर आज मेरा नौकरी का अंतिम दिन होगा ! अगर ऐसा हुआ कि मुझे नौकरी छोड़ कर जाना पड़ा तो मेरा और मेरे बच्चों का गुजारा कैसे होगा ! मुश्किल से ये नौकरी करके कमला अपना और अपने तीन बच्चों का पेट पाल रही थी !
पार्टी शुरू हो गयी ! कमला भी अपने बच्चों को साथ लायी थी लेकिन उसकी हिम्मत नहीं थी कि उनको अन्दर आने को कहती इसीलिए उसने उनको घर के पिछवाड़े के आँगन में बैठा दिया ! केक काटने के बाद खाना लगाने को कहा … कमला ने डरते हुए खाना लगाया ! श्वेता ने पहला ही कौर मुह में लिया और थूक दिया ये क्या वाहियात खाना बनाया है …. इसमें नमक है ही नहीं और मिर्ची इतनी की मुंह में छले पड़ जाये ! हटाओ इस बकवास खाने को और ऐसा कहकर श्वेता ने प्लेट फेंक दी ! श्वेता की मम्मी ने कमला को डांटते हुए कहा की बेबी का मूड ख़राब कर दिया आज उसका जन्मदिन है !
बेबी यानि श्वेता जो की बीस साल की हो गयी थी आज ! गुस्से में अपने फ्रेंड्स को लेकर चल पड़ी की चलो कहीं अच्छी जगह जाकर खाना खायेंगे ! जाते जाते श्वेता आर्डर दे गयी की इस खाने को फेंक देना ! कमला ने खाना चखा लेकिन खाना तो बहुत अच्छा बना था पर कमला पलटकर जवाब थोडा दे सकती थी ! उसने खाना उठाया और बांधकर चल पड़ी बच्चों को लेकर बस्ती की तरफ उदास मन से की जिसको खाने की भूख ही न हो उसको खाने का स्वाद कैसे पता चलेगा ! उसने खाना अपनी बस्ती के सारे बच्चों में बांटा ! सारे बच्चे खाने को देखकर टूट पड़े क्यूंकि उनको ऐसे लज़ीज़ पकवान कभी नसीब कहाँ हुए थे वो तो आज श्वेता के ज्यादा नखरे के कारन मिल गया ! सब बच्चे खाना खाकर इतना खुश थे अब कमला भी थोड़ी अपने को हल्का महसूस कर रही थी की चलो किसी का तो पेट भरा !
दोस्तों ये बात सही है कि जब भूख ही न हो तो खाना कैसा भी हो बेस्वाद ही लगेगा और भूख में तो कुछ भी हो खाने को वो बहुत स्वाद लगेगा ! भूख भूख होती है गरीब या अमीर की नहीं होती ! अमीर लोग अपने पैसे के बल पर खाना वेस्ट करते हैं ! जब भूख की मार पड़ती है तो इंसान कुछ भी खाने को मजबूर हो जाता है ! ये भूख ही है जो इंसान को इंसान का दुश्मन बना बैठी है ! ये भूख ही है जो सरेआम लड़कियों के साथ दुष्कर्म हो जाते हैं ! ये भूख ही जिसके लिए लोगो ने अपना ईमान तक बेच दिया है ! ये भूख ही है जिसके लिए इंसान इतना निचे गिर जाते हैं ! भूख का कोई चेहरा नहीं होता कोई रूप नहीं होता ! भूख अमीर गरीब को नहीं पहचानती !

Thursday 7 August 2014

राखी पर लें प्रण .....

" यही प्रण लेना और देना ,
राखी का मान-सम्मान बढ़ाना"

प्रेम के धागे
शायद कच्चे हो गये
या फिर अपना
महत्व खोने लगे हैं
एक डोरी में बंधा
प्रेम-विश्वास, दुआयें और सम्मान
कहीं न कहीं कमजोर हो रहा है
वरना हर दिन यूँ
बहने डर डरके न जीती
एक तरफ श्रीकृष्ण ने
द्रौपदी की लाज बचायी
एक कच्चे धागे से ही
खत्म न होने वाला चीर बनाया
तब तो दुशासन एक था
आज हर गली हर नुक्कड़ पर
दुशासनों का डेरा है
और कोई कृष्णा भी तो नहीं
अब बहनों को भाई से
खुद की रक्षा की नहीं बल्कि
संपूर्ण नारी-जाति के
सम्मान की रक्षा का प्रण लेना होगा
वचन लेना होगा कि
कभी किसी पर कुदृष्टि न डालें
वरना बेइज्जत वो पीडित नहीं
बल्कि मेरी राखी और मेरा विस्वास होगा !!

प्रवीन मलिक ••••••@•••••

Monday 4 August 2014

दो आंसू ...

सुनीता बहुत खुश थी आखिर 2 साल बाद उसको अपनी सहेली संजना से मिलने का मौका मिला है ! कितना कुछ है जो उसको संजना से पूछना है उसको बताना है ! आखिर उसकी सबसे अच्छी सहेली जो है संजना ! सुनीता के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं ... खुशी के मारे वो छीलने के लिए मटर ससुर जी को पकड़ा रही है तो अखबार सासू जी को ... उफ्फ इतनी खुशी ... वो अपने दिल में नहीं समा पा रही है !
खुशी हो भी क्यूँ न .. रमेश ने पहली बार उसे कहीं जाने की इजाजत जो दी है ! वो भी कितनी मिन्नतों के बाद कि संजना की शादी हो जाएगी फिर क्या पता कभी मिल पायें या नहीं .. कितनी बार कहने पर रमेश ने कहा था कि ठीक है लेकिन सुबह जाकर शाम को वापस आ जाना .. यूँ तो सुनीता एक दिन पहले जाना चाहती थी एक आखिरी रात संजना के साथ बिताना चाहती थी क्यूँकि शादी वाले दिन उन दोनों को कहाँ कुछ टाइम मिलेगा अपनी कहने सुनने का ... पर रमेश से वो बहस नहीं करना चाहती थी जितनी इजाजत मिली है उतने में ही खुद को खुश कर लिया है !
सारे काम वो फटाफट निपटा रही है कि कल जल्दी उठना है ! तभी अचानक उनकी सास के कमरे से चीखने की आवाज आती है ! सुनीता दौड़कर कमरे में जाती है तो देखती है कि उसकी सास पेट पकड़े जमीन पर बैठी है और रो रही है . . दर्द ज्यादा होने के कारण तुरंत हॉस्पीटल लेकर गये रमेश और सुनीता माँ जी को ... ससुर जी घर पर ही यश के साथ रुके ..  दर्द के मारे माँ जी की हालत बहुत खराब थी लेकिन हॉस्पीटल जाकर डॉक्टर के चैकअप के बाद पता चला कि गैस की वजह से दर्द था ! कुछ ही देर में दवाई के बाद उनको आराम हो गया और डॉक्टर ने घर जाने की आज्ञा दे दी ! इसी बीच रात के बारह बज गये ! माँ जी ने घर जाकर कहा कि सुनीता बेटा मैं अब बिलकुल ठीक हूँ तुम जाकर सो जाओ .... कल तुम्हें अपनी सहेली की शादी में जाना है !
तभी रमेश ने तुनक कर कहा ... माँ इसकी सहेली की शादी कोई जरुरी नहीं है ! सुनीता कल कहीं नहीं जा रही है फिर से आपकी तबियत अगर खराब हुयी तो ....
माँ जी ने कहा- नहीं बेटा मैं बिलकुल ठीक हूँ और डॉक्टर ने कहा ना कि मामूली गैस थी अब सब ठीक है .. सुनीता जा आयेगी उसका बहुत मन है अपनी सहेली से मिलने का ...
रमेश- माँ ... क्या आप बच्चों सी बात कर रही हैं ! ये नहीं गई तो क्या इसकी सहेली की शादी नहीं होगी ! वैसे भी औरतों की क्या दोस्ती यारी .. आज कहाँ है कल पता नहीं कहाँ होंगीं ! सुनीता का संजना  की शादी में जाना इतना जरुरी नहीं जितना आपकी सेहत है .... तभी मोबाइल बजा और रमेश फोन पर बात करने लगा ... फोन की बातचीत से पता चला कि रमेश का दोस्त अमन बहुत दिन बाद विदेश से आया है और कल सब दोस्तों ने मिलने का प्लान किया है ... और रमेश हँसते हुये कहता है - हाँ यार कल मिलते हैं मैं बिलकुल फ्री हूँ ....
सुनीता मन ही मन सोचती है क्या मुझे अपनी सहेली से मिलने का हक नहीं क्यूँकि मैं एक औरत हूँ ... अगर रमेश चाहते तो मैं मिल सकती थी संजना से ... पर नहीं ..... मैं तो रमेश के हाथों की शायद कठपुतली हूँ जो वो चाहेगें वही मुझे करना है ... मैं खुद से कोई फैसला नहीं ले सकती हूँ ..... यही सोचते हुये दो आँसू  उसकी आँखों के कोर से छलकते हैं और सुनीता मुँह फेरकर छुपा लेती है और दिल के दर्द को छुपाकर अपनी दिनचर्या में लग जाती है .....

Sunday 3 August 2014

ये रिश्ता ....(दोस्ती का)

यूँ तो सब रिश्ते
खुदा की देन हैं
एक दोस्त ही हम
अपने अनुरुप चुनते हैं
जो हमारे जैसा हो ,
जिसके विचार और सोच
 हमसे मिलती हो
तभी दोस्ती का काँरवा
आगे बढ़ता है
विस्वास के धागे का
इसमें विशेष महत्व है
ये धागा जितना मजबूत
तो रिश्ता भी उतना ही
दृढ़ , मजबूत होता है
न इसमें हिसाब रखा
जाता लेन-देन का
जो दिया दिल से दिया
कोई अहसान नहीं किया
उपकार या अहसान
जैसे शब्द तो इसमें
कदापि नहीं आते
एक दूसरे की समझ
इसे और ज्यादा
मजबूती देती है
इसमें सारे गम अपने
सारी खुशियाँ तुम्हारी
न वक़्त का कोई पहरा
न ही मजबूरियों का
कोई बंधन
जैसे हो वैसे ही मंजूर
न कोई बदलाव की चाह
आइने की तरह साफ
छल कपट और बैर से
कोसों दूर होता है
ऐसा ही होता है ये रिश्ता ........(प्रवीन मलिक)

Saturday 2 August 2014

सुनो ना ... क्यूँ हो इतनी कठोर ??

यूँ तो तुम बहुत अच्छी हो
मन की सुन्दर हो
व्यवहार की भी बहुत अच्छी हो
सबसे मिलनसार हो
बस मुझसे ही बेरुखी पाली है तुमने
जाने क्यूँ इतनी सरहदें
बनाकर रखी हैं तुमने तेरे-मेरे दरमियान
न तुम खुद उस पार आती हो
न ही मुझे इस पार आने देती हो
नदी के दो किनारों सा रखना है तुमने
हमारे इस रिश्ते को जो कभी नहीं मिलते
बस साथ साथ चलते हैं अनंत तक
पर बीच में हमारे ये जो स्नेह का
मीठे जज्बातों का दरिया बहता है
तुम इसमें भीगना भी नहीं चाहती हो
लेकिन ये कभी-कभी बहुत ज्यादा
तेज़ बहाव से बहने लगता है
तोडना चाहता है किनारों को
आना चाहता है उस पार तुम्हारे करीब
पर तुम रोक देती हो आखिर क्यूँ
मैं चाहता हूँ तेरे मेरे दरमियाँ एक पुल
जिसे पार कर आ सकूँ तुमसे मिलने
पर तुम्हारी ये रोक-टोक बहुत खटकती है
बहुत रुला देती है मुझे
खुद पर ही शक होने लगता है कि
शायद मैं तुम्हारा भरोसा ही नहीं जीत पाया
क्यूँ भरोसा नहीं कर पाती हो आखिर
आजमाकर तो देखो हमें एकबार
जो विस्वास दिखाया है उसे कभी टूटने नहीं देंगे
भले ही उसके लिए हमें खुद टूट जाना पड़े
इतनी भोली और मासूम सूरत है तुम्हारी
फिर दिल क्यूँ इतना कठोर बनाया हुआ है
चट्टान के माफिक ...
कभी तो अपने दिल की भी सुन लिया करो
क्यूँ रखती हो हर वक़्त उसे बेड़ियों में जकड़कर
उसको भी कभी तो जीने दो जैसे वो चाहता है जीना
उसको भी करने दो अपनी कुछ ख्वाहिशें पूरी
थोडा तो रहम करो उसपर आखिर है तो एक दिल ही न
मुझ से तो नाइंसाफी करती ही हो
अपने दिल से तो कभी इन्साफ कर लो
सुनो ना ... बताओ तो आखिर तुम्हे
क्या डर है , क्यूँ तुम अपने दिल की नहीं सुनती हो
मेरा दर्द तो खैर तुम कहाँ समझोगी
तुमने तो अपने दिल को ही कैद में रखा है !!......................( प्रवीन मलिक )

Wednesday 30 July 2014

बिन बेटियाँ कहाँ बढ़ेगी वंशबेल


सावित्री अचानक चक्र खाकर गिर पड़ी ! धनपति भागकर बहु को उठाती है और डॉ को बुलाने को दौडती है ! घर के बाहर ही धनपति को इमरती देवी मिल जाती है जो की धनपति की अच्छी सहेली होने के साथ साथ दाई भी है ! गाँव में ऐसा कौन जिसने इमरती देवी के हाथो जन्म न लिया हो ! सभी गाँव वाले उसको इमरती काकी कहकर बुलाते हैं ! धनपति को दौड़ते हुए देखकर इमरती काकी पूछ बेठी अरे धन्नो कहाँ भागी जा रही है न राम राम न श्याम श्याम .......
धनपति देवी : अरे काकी क्या बताऊ बहु अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ी बस डॉ को ही बुलाने जा रही थी जल्दी जल्दी में आपको देखा ही नहीं !!
इमरति काकी : अरे रुक ... चल मैं देखती हूँ क्या हुआ है बहु को ... तुम्हे तो पता है न की तो नाडी देखकर ही बता दूंगी क्या हुआ होगा बहु को .. चल घर चल ...
( दोनों घर के अन्दर तेजी से प्रवेश करती हैं )
इमरती काकी सावित्री की नब्ज देखती है और फिर पेट हाथ लगाकर देखती है और बोलती है अरे धन्नो ऐसे चक्कर तो सबको आयें .. जा जल्दी से कुछ मीठा ले आ तू तो दादी बनने वाली है ... तेरी बहु तो पेट से है ...
धनपति की ख़ुशी का ठिकाना न रहा और रसोई से गुड लाकर सबका मुंह मीठा कराती है ये कहते हुए कि अभी तो गुड से काम चलाओ वेदपाल आयेगा तो लड्डू मंगवा कर बाटूंगी ....(इमरती कुछ देर बैठकर निकल जाती है बहु को कुछ जरुरी बाते बता कर क्या करना है कैसे चलना है कैसे उठाना बैठना है आई आदि )
धनपति : बहु अब तुम बहुत ख्याल रखना अपने खाने पीने का मुझे मेरा पोता एकदम चाँद सा सुन्दर चाहिए ...
सावित्री : पर माता जी क्या पता पोता होगा या पोती .... जो भी बस चाँद का टुकड़ा होना चाहिए !
धनपति : (गुस्से में) ... बहु पोता ही चाहिए मुझे ... कुछ दिन बाद जाकर चेक करा लेंगे मुझे बस पोता ही चाहिए जो मेरे वंश को आगे बढ़ाएगा ... पराये धन का क्या करना है खिला पिलाकर हम बड़ा करेंगे और कमाएगी किसी और के घर जाकर ....
सावित्री चुप हो गयी क्यूंकि धनपति के सामने कुछ भी कह नहीं पाती थी आखिर धनपति धाकड़ बुढिया थी जिस से सावित्री तो क्या वेदपाल और यहाँ तक भोला सिंह भी डरते थे !
समय बीत गया और आखिर साढ़े-तीन महीने हो गए थे सावित्री को ...
धनपति : ओ बहु सुन .. आज हस्पताल जाना है जल्दी से काम निबटा ले ... बात कर ली है मैंने घर में सबसे ... बेटी हुयी तो क्यों फालतू का झंझट मोल लिया ... बेटा हुआ तो रखेंगे ..
सावित्री की तो मानो सांसे ही रुक गयी हों .... उसका दिल जोर जोर से धडकने लगा की पता नहीं क्या होगा ... क्या मैं अपने बच्चे को जन्म दे पाऊँगी या नहीं ... बेटियां क्या इतनी बुरी होती हैं जिनके पैदा होने पहले ही इतनी चिंता होने लगती है ... पर अम्मा जी कहाँ मेरी सुनेंगी
दोनों हस्पताल पहुँच जाती हैं और डॉ से मिलती हैं
धनपति : डॉ साहब ये मेरी बहु है .. साधे तीन महीने पेट से हैं बस अब जल्दी से बता दो की बीटा है या बेटी ... मैं आपका दराज पैसो से बहर दूंगी ...
डॉक्टर : ठीक है ताई ..पर जन्म से पहले बच्चे के लिंग का पता लगाना कानूनन जुर्म है ! हम सिर्फ बच्चा ठीक है स्वस्थ है यही बता पाएंगे .... बाकी ...
धनपति : अरे डोक्टर फ़िक्र क्यूँ करे है ... बस तू दाम बता और फेर हम तो किसी को बताएँगे नहीं और आपने बताने की के जरुरत है ... कानून ने कोणी पता चाले के बताया के नहीं ...
डोक्टर : ठीक से ताई .. पर चोखी रकम देनी पड़ेगी फेर ही कुछ कर पाउँगा .. न ते तन्ने पता है कि कितना रिस्क भरा काम है ...
धनपति : अच्छा ठीक है जो तू बोले .... बस म्हारा काम कर दे बाकि चिंता न कर ...
सावित्री को जिसका डर था आखिर वहि हुआ ... डोक्टर ने कहा कि लड़की ही है ... ये सुनते ही धनपति ने कहा की ख़त्म कर दो नहीं चाहिए ... मुझे तो बस लड़का ही चाहिए ... सावित्री रोती रही हाथ पैर जोडती रही की मेरी बेटी को मत मारो जीने दो उसको .. उसको भी देखने दो दुनिया .. पर कहाँ चलने वाली थी !
धनपति ने एक तरफ पोती से पीछा छुड़ाकर राहत की सांस ली वहीँ दूसरी तरफ सावित्री को अब वो पहले की तरह प्यार से नहीं ट्रीट करती थी जब देखो ताने देती रहती की एक वारिस भी न दे सकी हमारे परिवार को ... इन सबके चलते सावित्री अन्दर ही अन्दर घुटती रहती .... वेदपाल को कुछ कहती तो वो भी आग बबूला हो सावित्री आर ही बरस पड़ता ....
आखिर कुछ दिन बाद सावित्री को पता चला कि वो फिर से पेट से है लेकिन उसने सोचा कि अब अगर वो बताएगी तो फिर से वही होगा .. तो उसने कुछ दिन चुप रहने का ही सोचा लेकिन एक तो सावित्री कमजोर थी ऊपर से पेट से .. उसकी तेज सास को पता लगाने से भला कौन रोक सकता था ! अंततः धनपति को पता चल ही गया की सावित्री फिर से पेट से है और धनपति ने उसी डोक्टर से मिलने की बात की ..... फिर वही हुआ जो धनपति चाहती थी और सावित्री को डर था .. सावित्री की एक और संतान लड़के की चाह में मिट गयी ...... ऐसा एक बार नहीं हुआ कई बार हुआ और सावित्री कुछ न कर सकी सिर्फ दुआ के कि अबकी बार देना हो तो बेटा दे ताकि वो अपनी संतान को जन्म दे सके वरना कुछ न दे .....
कुछ दिन बाद सावित्री फिर से पेट से थी शायद पांचवी बार ... पहले चारो बार उसका गर्भपात करा दिया गया था और इस बार रामजाने क्या होगा ... लेकिन इस बार शायद सावित्री की दुयाएँ कबूल हो गयी थी और जाँच में पता चला की सावित्री दो जुड़वाँ बेटो की माँ बन ने वाली है ... धनपति ने लड्डू बंटवाएँ .. सावित्री भी खुश थी की अब वो माँ बन पायेगी सही मायने में .... और 9 महीनो बाद सावित्री ने दो चाँद से बेटो को जन्म दिया ! देसी घी का खाना किया गया पुरे गाँव और उसके आसपास के लोगो का ... मंदिरों में दान दिया गया ....
धीरे धीरे दोनों बेटे बड़े होने लगे पढाई में चतुर थे दोनों ही और सबकी आशाओं पर खरे उतर रहे थे ! पढ़ लिखकर नौकरी लग गए लेकिन जैसा की आप जानते हैं हमारे हरियाणा में लडको के अनुपात में लड़कियां काफी कम हैं ! बहुत से कुवारें लड़के घूम रहे हैं ! ऊपर से जात बिरादरी का भेद अलग से ! अब उनके ही बेटो की शादियाँ हो रही हैं जिनके खुद एक बेटी है ... बेटी दो बहु लो यही प्रथा चल पड़ी है ! धनपति को रातदिन चिंता सता रही है पोतो की शादी की लेकिन कुछ बात नहीं बन रही ... एक दिन धनपति एक पड़ोस के दीनू काका से जिक्र करती है की काका कैसे भी करके मेरे पोतो की शादी करा दो ... सारा खर्चा हम करेंगे बस लड़कियां ढूँढकर ला दो ... काका भी हाजिर जवाबी थे बोले धनपति तुमने इतने पाप किये हैं हमसे क्या छुपे हैं .. तुमने खुद की कितनी पोतियाँ  कुर्बान की हैं सिर्फ पोते की लालसा में ... तेरी पोती होती तो कबकी तेरे भी पोतो की शादी हो चुकी होती तुम तो जानती हो न की आजकल बदला चल रहा है एक हाथ दो दुसरे हाथ लो  ! पर तुम कहाँ से बदला करोगी ! अब चलाओ अपना वंश पोतो से ही .....

Sunday 13 July 2014

बरसो ना मेघा ....

तने खड़े हैं
गुमसुम बादल
क्यूँ न बरसें

गर्मी से तप्त
भू पर जीव-जंतु
आस लगाये

जमीं का प्यार
समझें न बादल
हुए निष्ठुर

रोते किसान
बिन पानी फसल
न हो बुआई

बच्चे व्याकुल
गर्मी करे बेचैन
खुले हैं स्कूल

*********प्रवीन मलिक**********

Sunday 6 July 2014

तुम क्या जानो ...

तुम क्या जानो .......

कुछ भी लिखना
कहाँ है आसान
कलम तो चाहती है
हर वक्त मचलना
शब्दों में भी तो
तड़प होनी चाहिए
बँधने की एक सूत्र में
अहसासों को भी
कुछ तो चाहत हो
बरस जाने की
जज्बात भी तो
चाहें वजूद अपना
किसी कोरे कागज पर
उतारना , तभी तो
कलम का चलना
होगा सार्थक और
बन पड़ेगा कुछ
रोचक सा जिसे
ये दिल चाहता हो
बयान करना तुमसे
और तुम कह देते हो
इसको वाहियात
समय की बर्बादी
तुम क्या जानो
ये तो अब शामिल है
मेरे उन अजीजों में
जो मुझे हरवक्त देते हैं
अहसास मेरे जिंदा होने का
तुम क्या जानो ये सब !!

Wednesday 2 July 2014

हकीकत हो या सपना ... पीड़ा वही होती है !!

मन अति व्याकुल ... विचारों का गहन मंथन हो रहा अंतर्मन में ... सारे अच्छे बुरे पल चलचित्र की भाँति घूम रहे दिमाग में ... नैन अश्रुपूर्ण और हृदय में अजीब सी पीड़ा ... बाहर से सब सामान्य दिख रहा पर अंतर्मन में भयंकर तुफान ... तभी दूर धुयें से बनती एक परछाई पास और पास और पास आती दिखाई दे रही .. अब इतनी पास कि शक्ल साफ दिख रही है .... ये तो माँ है ... माँ ....माँ .... चिल्लाती उस दिशा में दौड़ती पर माँ जैसे पहले समीप आ रही थी अब उसी तरह धीरे-२ वापस दूर जा रही है ... पकड़ने में असमर्थ पीछे दौड़ती हुई  .. हृदय की पीड़ा कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है और एक तेज चीख निकलती है .. माँ ... रुको ना...... तभी आँख खुल जाती है !
उफ्फ सपना था ये ..... पर हकीकत के कितने करीब लग रहा था... दिल में वही उथल-पुथल.. वही अश्रुपूरित नैन .. हृदय में वही तीक्ष्ण पीड़ा .... वही खोने का अहसास .....

Thursday 26 June 2014

मन ... "बेताज बादशाह"

ये चंचल मन 
बिन पंखों के 
ख्वाबों की दुनिया में 
विचरता रहता है 
हकीकत से दूर 
ख्वाहिशों की 
ट्रेन पकड़कर
जाने कहाँ-कहाँ 
भटकता रहता 
इसके लिए कोई 
बंधन मायने नहीं रखता 
ये हर बॉर्डर को 
क्षण भर में ही 
बेखौफ पार कर जाता 
नामुमकिन जैसे शब्द 
शायद इसने कभी 
पढ़े नहीं तो , नहीं है कुछ भी 
नामुमकिन इसके लिए 
ये तो अपनी ही 
खूबसूरत रंग-बिरंगीं 
दुनिया का बेताज बादशाह है !!


प्रवीन मलिक 

Saturday 10 May 2014

माँ ही नहीं है पर यादें तो हैं !!

माँ की परछाई 



माँ शब्द को परिभाषित करना मतलब सारी भावनाओं को , सारे अहसासों को , सारी संवेदनाओं को , सारी दुआओं को , सारे त्याग को , अनंत प्रेम को विस्तार में कहना ! माँ के लिए लिखने पर शब्द खत्म हो सकते हैं पर माँ का प्यार अनंत बाहें फैलाकर शब्दों  में समाना ही नहीं चाहता ! माँ तो वो है जो हमारे जन्म से पहले से ही हमारे लिए त्याग करना शुरु कर देती है , हमारी सेहत के लिए अपने पसंद के भोजन तक को बदल देती है , अपनी सारी रातें हमारे नाम कर देती है , अपने सपने सब हमपर कुर्बान कर देती है , खुद की जान पर खेलकर हमें इस दुनिया में लाती है , हमारी पहली गुरु बन कर हमारी शिक्षा की नींव रखती है , गलत सही के बीच भेद बतलाती है , अच्छे बुरे का फर्क समझाती है , हमारी छोटी- छोटी खुशियों में ही वो खिलखिलाकर मुस्काती है , दर्द हमें हो तो आँसू वो बहाती है , हमारी हर बात को बिन कहे समझ जाती है .... माँ के लिए जितना कहा जाये कम ही पड़ता है !
कुछ कभी जब भी माँ की याद आये तो शब्दों में ढ़ालना चाहा ...

जिंदगी की राह में जाने कितने मोड़ आते हैं
कुछ अजनबी मिल जाते तो कुछ अपने छूट जाते हैं
सफर ये रुकता नहीं है किसी के छूट जाने से भी लेकिन
हाँ वक्त वक्त पर छूटे हुये  अपनेे याद बहुत आते हैं .....

माँ के हाथ के खाने में जाने क्या स्वाद था ,
रुखी-सूखी खाकर भी दिल तृप्त हो जाता था !
खुद के बनाये लजीज खाने में भी अब ,
न वो स्वाद है और ना  ही दिल को तृप्ति होती है !!......

माँ का आँचल कितना भी झीना क्यूँ न हो
औलाद को हर अल्ली-झल्ली से बचा लेता है !!....

माँ की दुआएँ ढ़ाल बन जाती हैं
जब भी मेरी जिंदगीं में मुश्किलात आती हैं !!

यूँ तो अपने बहुत हैं कहने को माँ ,
पर तुमसा अपनापन किसी में नहीं है !!

तुम्हारी डांट में भी कितना प्यार छुपा था माँ ,
माँ बनकर ही तेरा वो प्यार अब समझ आया !!

बात बात पर रूठ जाया करते और तुम पल में मना लिया करती ,
वो रुठना मनाना आज फिर से  बहुत याद आया माँ !!

सारे भाव अलग अलग परिस्थितियों में माँ की अहमियत का अहसास कराते हैं और माँ की यादों को अनमोल बनाते हैं !
माँ जैसी ही बनना है मुझे पर उसके जितनी ममता कहाँ से लाऊँ .....

Tuesday 6 May 2014

हाइकु-- मासूम चंचल बेटियाँ

कुछ हाइकु मासूम चंचल बेटियों के लिए ...

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सुन नादान
ईश्वर वरदान
बेटी संतान

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छू लें आसमाँ
करें नाम रौशन
दें, जो हौसला

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एक ही चाह
नापे धरा गगन
बेटी शगुन

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नाजों से पली
चढ़ी दहेज बलि
मासूम कलि

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नाजुक कंधें
ढ़ेर जिम्मेदारियाँ
ढ़ोती बेटियाँ

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प्रवीन मलिक
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Thursday 1 May 2014

सम्मान के हकदार श्रमिक

हर कोई अपने स्तर पर श्रमिक है और पसीना बहाना श्रमिक की पहचान है पर हर स्तर पर श्रमिक को सम्मान नहीं मिलता यदि आप अपने उच्च अधिकारी से सम्मान की अपेक्षा रखते हैं तो आपका भी फर्ज है अपने निम्न स्तर के श्रमिकों को उचित सम्मान देना .... आखिर खून पसीना बहाते हैं भले ही अपने पेट के लिए पर उनका सहयोग हर स्तर पर मायने रखता है और विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है !
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कर्कश वाणी
सहना मजबूरी
सब हैं जाणी
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पेट की आग
जलाए हरपल
कैसे अभाग
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सूखा शरीर
श्रम है मजबूरी
न हो अधीर
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थोड़ा सम्मान
श्रमिक हकदार
जरा ले जान
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नन्हें श्रमिक
खो रहे बचपन
सुनो धनिक
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रद्दी बीनता
वो बाल मजदूर
पेट की चिन्ता
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प्रवीन मलिक 

Wednesday 30 April 2014

वृधावस्था पर कुछ हाइकू




बुढ़ापा आया / कष्ट साथ में लाया / कैसी विपदा

द्रवित मन
टूट चुके हौसले
जर्जर तन

आखिरी क्षण
इकलौती चाहत
बेटे की गोद

टूटा है दिल
अवहेलना पाई
बच्चों से मिल

लुटा जीवन
संवारा है भविष्य
प्रिय संतान

मोह ममता
अपने ही खून से
पड़ी मंहगी

घर का कोना
मिलना है दूभर
उठा बिछौना

छलकी आँखें
कचोट रहा मन
बुढ़ापा बैरी

नींद लुटाई
लाडले का भविष्य
सवांरने को

बुढ़ापा आया
कष्ट साथ में लाया
कैसी विपदा

सारी जिंदगी
प्यार-प्रेम लुटाया
कुछ न पाया

हमारा कल
त्याग का है गवाह
सुन ले आज



प्रवीन मलिक

Saturday 29 March 2014

बेटी भी बहू होती है !





अजय रोज ही शराब पीकर आता और आते ही सुधा पर हाथ छोड़ने लगता किसी न किसी बहाने से ! सुधा रोज रोज के इस अत्याचार से तंग आकर मायके चली गई लेक्न सास ससुर ने कोई आवश्यक कदम नहीं उठाया इस विषय पर ! सुधा के पिता जी ने उसके सास ससुर को समझाया भी कि आप अपने बेटे को समझाएं वरना हमों समझाना होगा ... बेहतर यही होगा कि आप बात करें ! सास ससुर ने सुधा के पिता जी को चटक से कह दिया कि कहासुनी किसके घर नहीं होती और गुस्से में अजय ने हाथ उठा भी दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा .. सुधा को भी तो समझना चाहिए ! सुधा के पिताजी तुनक कर रह गये पर बेटी के ससुराल का मामला था तो ज्यादा कुछ न कहते हुये बोले कि अगर सुधा की कोई गल्ती हो तो समझ आता है पर इस व्षय पर आप थोड़ा संयम और निष्पक्ष होकर सोचें तो शायद आप समझे आखिर आप भी एक बेटी की माँ हैं ! काफी दिन बीत गये पर सुधा की ससुराल से कोई नहीं आया सुधा की खबर लेने और अजय ने भी पीना कम नहीं किया बल्कि ज्यादा ही कर दिया ! एक दिन रात के तीन बजे सुधा की ननद रोती हुई मायके आ पहुंची ! इतनी रात को आरती(सुधा की ननद) को देखते इस हाल में देखकर अजय और उसके मम्मी पापा के पैरों तले जमीन निकल गई ! उसी वक्त गाड़ी निकालकर आरती की ससुराल पहुँच गये और उसके पत् व सास ससुर को बहुत बुरा भला कहने लगे ! विकास(आरती का पति) आगे आया और बोला साले साहब इतना कष्ट हो रहा है अपनी बहन की आंखों में आंसू देखकर .... सुधा की भी ऐसी ही हालत करके भेजा था तब आपको कोई तकलीफ नहीं हुई ! इतना सुनना था कि अजय और उसके माता पिता पर मानों घड़ों पानी फिर गया और बोले बेटा हम अभी सुधा को लेने जा रहे हैं तुम बस आरती का ख्याल रखना ! आरती आगे बढ़ी और बोली माँ ये सब आप लोगों को समझाने के लिए था .. कल हम सुधा भाभी से मिलने गये तो पता चला सब ... माँ सुधा भाभी भी आपकी बेटी हैं उनको तकलीफ में देखकर उनके बूढ़े माँ बाप को भी इसी तरह तकलीफ होती है जिस तरह आपको मुझे इस हाल में देखकर हुई ! बस अब सुधा के सास ससुर देर नहीं करनै चाहतेे थे और बहू को लेकर आ गये !

प्रवीन मलिक 

Saturday 15 March 2014

होली का ये पावन त्यौहार ....



होली का ये पावन त्यौहार ,
फैलाता है चहुँ ओर प्यार !!

हर रंग से सजा है ये त्यौहार ,
ले आता है जीवन में ये बहार !!


प्रेम और भाईचारे का रंग ,
खेले होली हर कोई संग-संग !!


गुंजिया-सी मिठास  फैलाना ,
नफरतें  दिलों से तुम  मिटाना !!


गिले शिकवे दिल से मिटाना ,
प्यार -प्रेम का तुम रंग फैलाना !!



होली पर करना तुम ऐसा  धमाल ,
लगाना एक दूजे को रंग और गुलाल !!

आपको एवं आपके परिवार को होली की बहुत बहुत शुभकामनायें !!!
सादर धन्यवाद....






पधारने के लिए धन्यवाद