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Wednesday, 10 September 2014

पितृपक्ष श्रधा है या फिर ढोंग ..

परसों से श्राद्ध लगे हैं जिसका पता मुझे कल ही चला और आज सासु माँ का श्राद्ध था तो जितना बताया गया बड़ों द्वारा उतना श्रद्धापूर्ण तरीके से कर दिया ! मेरी सासु माँ भी श्राद्ध नहीं निकालती थी किसी का लेकिन मम्मी निकालती थी तो देखा था और शादी के बाद जेठानी जी भी अमावस्या के दिन निकालती थी पूछने पर पता चला कि ससुराल में नहीं निकालते हैं किसी का पता भी नहीं है तो बस अमावस्या को इसलिए निकाल देते कि उस दिन सब भूले-बिसरों का कनागत निकाला जाता है ! पिछली बार एक कनागत निकाला था ससुर जी के भाई का और आज सासु जी का निकाला है ! इस विषय में न कोई पूर्ण जानकारी है और शायद इसीलिए दिल इन सब चीजों को मानता भी नहीं ....
जो है जबतक जिंदा हैं तबतक ही है मरने के बाद किसने खाया किसने नहीं कुछ पता नहीं बस रिवाज है चली आ रही हैं और हम भी बस निभाते चले जा रहे हैं !
जीते जी जो शाँति न दे सकें मरने के बाद क्या ..... जीते जी लोग खबर नहीं लेते और मरने पर पंडित को ५६ भोग कराकर क्या और कैसी शाँति देते हैं  मुझे नहीं मालूम ! एक उम्र के बाद इँसान बोझ बन जाता है  आजकल के परिवेश में और कुछेक घरों में नहीं अक्सर ज्यादातर का यही हाल है क्यूँकि हम सिर्फ बड़ी बातें करने में विस्वास रखते ... करनी और कथनी में भेद रखते हैं ! सास-ससुर को मेहमान समझते हैं और मेहमान तो भई ..  बचपन में एक छोटू चाचा होते थो अक्सर एक बात कहा करते थे और हम खूब हँसा करते थे
पहले दिन का मेहमान
दूसरे दिन का साहेबान
तीसरे दिन का कद्रदान
और चौथे दिन का बेईमान ...
तो क्या अब वृद्ध जन भी उसी कैटेगरी में आते हैं ??? अपने ही घर में मेहमान हैं ??? अपने ही बच्चों जिनको बचपन में कंधे पर बिठाकर घुमाया करते थे उनके लिए बोझ हैं ??? जिनको पढ़ा-लिखाकर साहब बना दिया उनके मुँह से ये सुनने को मिलता है तुम्हें समझ नहीं ...... जो अपनी रातों की नींद इसीलिए कुर्बान कर देते थे कि बच्चों को किसी चीज की कमी न हो ..   माँ-बाप खुद जो कमी सहे हों वो कभी नहीं चाहते की उनके बच्चे उन कमियों और मजबूरियों के साथ समझौता करें उसके लिए वो अपनी जान, जवानी, चैन, आराम, भूख-प्यास , नींद खुशियाँ सब त्याग देते हैं पर कितने बच्चे ऐसा कर पाते हैं जब वही माँ-बाप अपनी वृद्धावस्था में एक गिलास पानी या दो वक्त की रोटी के मोहताज हो जाते हैं ?????
जिंदा रहते दो टूक को तरसे और मरने पर देसी घी का भोग ..... अरे जब इतना ही उनकी आत्मा की शाँति का ख्याल है तो ये सब जीते जी करो .... जिंदा थे तो जी का जंजाल बने थे तुम्हारे मरते ही पूज्यवान हो गये ????
बात सच है इसलिए थोड़ी कड़वी भी है पर क्या करें शहद में लपेटकर हमें कुछ कहना नहीं आता जो दिल में है वही जबान पर है किसी को कड़वा लगे तो लगे  . ..  जीते जी जो कष्ट दिया है वो पितृपक्ष में दान-दक्षिणा देकर उसकी भरपाई नहीं की जा सकती .....
कितने लोग वृद्धाश्रम में रोज बाट जोहते हैं कि कब उनका खून आकर कहे चलो माँ चलो पिता जी घर चलते हैं पर कौन कहेगा किसको खबर है सुध लेने की ऐसा होता तो वो उन्हें छोड़कर जाते ही क्यूँ वहाँ ..........
खैर पितृपक्ष के विषय में कुछ भी मेरी कड़वी जबान कह गई हो अनाप-शनाप तो नादान समझकर माफ कर देना पर जो कहा है वो सत्य ही है इससे आप सहमत होगें पता है हमें ...  क्यूँकि हर दूसरे तीसरे बुजुर्ग की यी कहानी है ....

3 comments:

  1. आपने कडुआ सच को बिना संकोच ही बोल दिया ..बहुत अच्छा किया ,ठीक किया ,यह भी एक ढकोसला है !
    रब का इशारा

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  2. apne jo bhi kaha hae ,it is bitter but true. my inlaws r arya samaji ,they don't believe in this.when my father -inlaw died, my mother-inlaw told me ,u believe in sanatam dharam,u can do shradh in pitra paksha.now my mother inlaw is also no more and iwas doing shradh for both for so many years.now my husband says no v will not do this time.give some thing to needy person.these pandit ji jobhi karte hae un se koe sharda nahi hoti.now i also believe t same thing ,help some needy people that will be good.

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पधारने के लिए धन्यवाद